Tuesday 6 September, 2011

विशेषाधिकार

चलो माना कि बुरी लगती हैं गालियाँ 
लेकिन गोलियों से फ़िर भी बेहतर हैं
यहाँ करोड़ों लोगों को गालियाँ खाके रोटी तक नहीं मिलती 
रोटियों कि खातिर खाते हैं न जाने कितने यहाँ पर गोलियाँ 
जहाँ लोगों का ये अधिकार है मौलिक 
कि इतना मिले उन्हें कि वो जी तो सकें कम से कम 
उनमे से ज्यादातर को रोज भरपेट रोटी सूखी तक नहीं है 
अपने बीमार बच्चों औरतों और बूढों को ले जाएँ 
उन अस्पतालों में जहाँ अधिकार है उनका 
उनकी हिम्मत तक नहीं होती उस ओर झाँकने की
सडक पर प्रसव को मजबूर गरीब औरतें 
बजबजाती नालियों से बीन कर पेट भरने की कोशिश में
हमारे देश का नन्हा मासूम भविष्य
ख़ुदकुशी को मजबूर हमारे अन्नदाता 
दुत्कार दिए जाते हमारे शहीदों के परिजन 
कहाँ हैं उनके जीने के अधिकार 
क्या उनका हिस्सा नहीं है उस जमीन के टुकड़े पर
जिसको खोदकर निर्दयता से चंद लोग 
सब तरह के ऐश और आराम जुटाते हैं
या जगमगाती ऊँची इमारतें बनाकर 
रात रात भर महफ़िलें सजाते हैं 
वहीं बाहर ठण्ड में न जाने कितने दम तोड़ देते हैं 
दाने दाने को मोहताज करोड़ों लोग 
जब इस व्यवस्था में रह जाते हैं अनपढ़ 
और बने रहते हैं लाचार पशुओं से भी बदतर 
तुम इनकी बेबसी पर करते हो सियासत 
लूटते खसोटते रहते हो इनकी हड्डियाँ और चूसते हो खून 
खाते उड़ाते रहते हो इनके हिस्से का सरे आम लूट कर
और इस बेबसी लाचारी असहायता से क्षुब्ध होकर
निकल जाये किसी के गले से तुम्हारे लिए अपशब्द  
तो तुम्हारे विशेषाधिकार का हनन हो गया 
तुम्हे ये विशेष अधिकार दिया किसने
क्यों है ये विशेष अधिकार तुम्हारे पास
जिन नियम कानूनों के तहत 
तुम अपने इस विशेषाधिकार का रोना रोते हो 
उन्ही के तहत ये जिम्मेदारी तुम्हारी है कि 
लोगों के साधारण अधिकारों की तो रक्षा हो कम से कम 
जब तक नहीं होता ऐसा
तुम किस मुंह से करते हो अपने विशेष अधिकार की बातें 
कुछ तो शर्म खाओ 
इन छुद्र बातों पर व्यर्थ समय गंवाकर 
और गुमराह तो न करो जनता को 
यदि तुम सचमुच अपने विशेष अधिकार पर गर्व करते हो 
तो उसे कमाओ अपने आचरण से कृत्यों से 
ना कि छीनने कि कोशिश करो डंडे के जोर पे 
अब बाज आओ छीनने झपटने चुराने और जोर जबरदस्ती से  
वक्त आ गया है कि ठन्डे दिमाग से सोचो 
ज़रा आराम करो 
और तुम्हे जिस काम के लिए हमने नियुक्त किया है 
सिर्फ वही काम करो 

No comments:

Post a Comment