Tuesday 2 March, 2010

स्वान्त: सुखाय

फ़ूल खिलते हैं
खूशबू लुटाते हैं
निस्वार्थ
ऐसे कई उपमानों से लैस
मै कविता सुना रहा था कि तभी
मेरी छोटी सी बिटिया ने
आकर एक तथ्यगत सत्य
किया उद्घाटित
ऐसा नहीं है
फ़ूल अपने पराग को
दूसरे फ़ूलों तक पहुँचाने के उपक्रम में
बिखेरेते हैं गन्ध
जिससे कि सन्तति हो सके
इसमे स्वार्थ है उनका अपना
अभी अभी पढ़ा होगा उसने
और अभी अभी ही मैने
पुन: अविष्कृत किया कि
कविता ही नहीं अपितु
सब कुछ वो जो सुन्दर है शिव है और सत्य है
होता ही है स्वान्त: सुखाय

No comments:

Post a Comment