Thursday 31 December, 2009

प्राकृतिक

सूखे टूटे असहाय पत्तों को
शोर करके
यहाँ वहाँ उड़ाती उठाती गिराती
पतझड़ की हवायें
नंगे खड़े रहने को मजबूर पेड़
लुटे हुये नुचे हुये से
जेठ की दुपहरी में
उत्पात मचाता जलाता सूरज
प्यासे मरते इन्सान और जानवर
सूखते पेड़ पौधे
जलके राख होते वन बाग जंगल
भयानक बारिश से अस्त व्यस्त
नदी किनारे के गाँव में
बरस बरस कर नरक पैदा करते
आषाढ़ के बादल
छप्परों को उड़ाकर दूर दूर
फ़ेंकती आँधियाँ
मवेशियों को बहा ले जाती
इन्सानों को जिन्दा डुबोती
उफ़न कर बढ़ी हुई नदी
तभी सोचूँ मैं
लूटना जलाना डुबोना नोचना
बरबाद कर देना
ये सब हमें आता है
बड़ा नेचुरली.

No comments:

Post a Comment